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ग़ज़ल
लो साहब आफ़्ताब कहाँ और हम कहाँ
अहमक़ बनें हम इस को न समझें अगर ग़लत
सय्यद यूसुफ़ अली खाँ नाज़िम
ग़ज़ल
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
याद रक्खेगा मिरा कौन फ़साना मिरे दोस्त
मैं न मजनूँ हूँ न मजनूँ का ज़माना मिरे दोस्त
अशफ़ाक़ नासिर
ग़ज़ल
तग़ाफ़ुल-दोस्त हूँ मेरा दिमाग़-ए-अज्ज़ आली है
अगर पहलू-तही कीजे तो जा मेरी भी ख़ाली है
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ
मिर्ज़ा ग़ालिब
ग़ज़ल
ये मंज़र देख कर साहिल की हैरानी नहीं जाती
मुझे छू कर भी कोई मौज-ए-तूफ़ानी नहीं जाती